Sthaneshwar Mahadev Mandir Thanesar

Sthaneshwar Mahadev Mandir Thanesar

महाभारत एवं पुराणांे में वर्णित कुरुक्षेत्र का यह पावन तीर्थ थानेसर शहर के उत्तर में स्थित है। इस तीर्थ का सर्वप्रथम उल्लेख बौद्ध साहित्य में उपलब्ध होता है। ‘महाबग्ग’ ग्रन्थ में ‘थूणा’ नामक ब्राह्मण गाँव का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार दिव्यावदान बौद्ध ग्रंथ में थूणं तथा उपस्थूण नामक ब्राह्मण गाँवों का उल्लेख है। कालान्तर में थूणं नामक यह स्थान स्थाणुतीर्थ नाम से प्रसिद्ध हुआ। वामन पुराण में इसे स्थणुतीर्थ कहा गया है जिसके चारों ओर हजारों लिंग है जिनके दर्शन मात्र से ही व्यक्ति को पापों से मुक्ति मिलती है।

कहा जाता है कि स्वयं प्रजापति ब्रह्मा ने यहां स्थाणु लिंग विग्रह की स्थापना की थी। वामन पुराण में स्थाणु तीर्थ के चारों और अनेक तीर्थो का वर्णन आता है। इस तीर्थ के चारों ओर विस्तृत एक वट वृक्ष का उल्लेख मिलता है। जिसके उत्तर में शुक्र, पूर्व में सोम, दक्षिण में दक्ष और पश्चिम में स्कन्द तीर्थ हैं। स्थाणु तीर्थ के नाम पर ही वर्तमान थानेसर नगर का नामकरण हुआ जिसे प्राचीनकाल में स्थाण्वीश्वर कहा जाता था। महाभारत के शल्य पर्व के अनुसार इस तीर्थ पर भगवान शिव ने घोर तप किया था तथा सरस्वती की पूजा के उपरान्त उन्होंने इस तीर्थ की स्थापना की थी। वामन पुराण के अनुसार मध्याह्न में पृथ्वी के सभी तीर्थ स्थाणु तीर्थ में आ जाते हैं।
कहा जाता है कि महाभारत युद्ध से पूर्व भगवान श्रीकृष्ण सहित पाण्डवों ने इस स्थान पर स्थाण्वीश्वर महादेव की पूजा-अर्चना कर उन से युद्ध में विजय होने का वरदान प्राप्त किया था।
थानेसर के वर्धन साम्राज्य के संस्थापक पुष्पभूति ने अपने राज्य श्रीकण्ठ जनपद की राजधानी स्थाण्वीश्वर नगर को ही बनाया था। हर्षवर्धन के राज कवि बाण भट्ट के द्वारा रचित ‘हर्षचरितम्’ महाकाव्य में स्थाण्वीश्वर नगर के सौन्दर्य का अनुपम चित्रण किया है – यह मुनियों का तपोवन, सुधी जनों की संगीतशाला शत्रुओं का यमनगर, धनलोलुपों की चिन्तामणि, शस्त्रोपजीवियों का वीरक्षेत्र, विद्यार्थियों का गुरुकुल, गायकों का गन्धर्व नगर, वैज्ञानिकों के लिए विश्वकर्मा मन्दिर, वैदेहिकों की लाभ-भूमि, बन्दियों का द्यूतस्थान, भले लोगो के लिए साधुसमागम, कामियों के लिए अप्सरः पुर, चारणों के लिए महोत्सव समाज तथा विप्रो के लिए वसुधा के समान था। स्थाण्वीश्वर मन्दिर के जीर्णोद्धार में मराठों का भी योगदान रहा है। कहा जाता है कि पानीपत के तीसरे युद्ध से पहले मराठों ने यहाँ के अनेक मन्दिरों का जीर्णाद्धार करवाया था जिनमें से यह मन्दिर भी प्रमुख है।

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