कपिलमुनि नामक यह तीर्थ कैथल से लगभग 26 कि.मी. दूर कलायत नामक कस्बे में स्थित है जिसका उल्लेख महाभारत, वामन पुराण, मत्स्य पुराण, ब्रह्म पुराण, कूर्म पुराण तथा पद्म पुराण में मिलता है।
महाभारत वन पर्व में इसका महत्त्व इस प्रकार वर्णित है।
कपिलानां तीर्थमासाद्य ब्रह्मचारी समाहितः।
तत्र स्नात्वाऽर्चयित्वा च पितृन्स्वान्दैवतान्यपि।
कपिलानां सहस्रस्य फलं विन्दतिमानवः।
(महाभारत, वन पर्व 83/47-48)
अर्थात् ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले एवं श्रद्धायुक्त चित्त से कपिल तीर्थ में स्नान करके देवताओं एवं पितरों की पूजा अर्चना करने वाले व्यक्ति को सहस्र गऊओं के दान का फल प्राप्त होता है।
वामन पुराण में इस तीर्थ को भगवान शिव से सम्बन्धित बताया गया है:
तत्र स्थितं महादेवं कापिलं वपुरास्थितम्।
दृष्ट्वा मुक्तिमवाप्नोति ऋषिभिः पूजितं शिवम्।
वामन पुराण 35/25-26)
अर्थात् इस तीर्थ में स्थित ऋषियों से पूजित कपिल शरीरधारी महादेव शिव का दर्शन करने वाला व्यक्ति मोक्ष पद का अधिकारी होता है। मत्स्य पुराण में भी इस तीर्थ को कपिला की संज्ञा देते हुए मार्कण्डेय ऋषि युधिष्ठिर को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे राजेन्द्र ! तदनन्तर उत्तम कपिल नामक तीर्थ की यात्रा करनी चाहिए। वहाँ स्नान करने से मनुष्य कपिला गऊ के दान का फल प्राप्त करता है। कूर्म पुराण में भी उत्तम तीर्थों में इसकी गणना की गई है। ब्रह्म पुराण के अनुसार कापिल तीर्थ में इन्द्रिय संयम पूर्वक स्नान करते हुए देवताओं को प्रणाम करने वाला व्यक्ति सब पापों से रहित हो, उत्तम विमान में स्थित होकर, गन्धर्वों से पूजित होकर ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है।
लोक प्रचलित परम्परा इसे कपिल मुनि से सम्बन्ध्ति मानती है जो सांख्य दर्शन के प्रणेता के रूप में प्रसिद्ध हैं। भागवत पुराण के तृतीय स्कन्ध के अनुसार कर्दम प्रजापति का देहावसान हो जाने पर उनकी धर्मपत्नी देवाहुति अपने पुत्र कपिल के पास पहुँचकर उनसे भक्ति योग के मार्ग के विषय में पूछने लगी, तब कपिल मुनि ने अध्यात्मज्ञान देकर उन्हें मोक्ष के लिए भक्ति मार्ग का अनुसरण करने की प्रेरणा दी। तत्पश्चात् वह तपोमय जीवन व्यतीत कर मोक्ष को प्राप्त हुई। इस प्रकार कपिल मुनि से सम्बन्धित होने से ही इस तीर्थ का नाम कपिल पड़ा। यहाँ पर प्रत्येक मास की पूर्णिमा को तथा कार्तिक मास की पूर्णिमा को विशेष मेला लगता है जिसमें दूर-दूर से भक्तजन यहाँ आते हैं।
तीर्थ स्थित मन्दिर के गर्भगृह में प्रतिष्ठित महिषासुर मर्दिनी तथा गणेश की प्रतिमाएं 10-11 शती ई. की है। इसी मन्दिर की भित्तियों पर अनेक भित्ति चित्र बने है। तीर्थ परिसर में ही 7वी. शती ई. के दो ईंटो से निर्मित मन्दिर है जो भारत के विरल मन्दिरों में गिने जाते हैं।