International Gita Mahotsav

मध्यप्रदेश के लोक कलाकारों की सांस्कृतिक प्रस्तुतियों दर्शकों के मन को मोहने कर रही है काम

अंतर्राष्ट्रीय गीता महोत्सव में मध्यप्रदेश के पवेलियन में मध्य प्रदेश के लोक कलाकार अपने सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत कर दर्शकों का मन मोह रहे है। इस पवेलियन में 29 नवंबर से 4 दिसम्बर 2022 तक सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रतिदिन प्रस्तुत किये जाएंगे। मध्यप्रदेश शासन संस्कृति विभाग द्वारा आयोजित इन सांस्कृतिक कार्यक्रमों में मध्यप्रदेश की संस्कृति की झलक मिलने के साथ-साथ मनमोहक आदिवासी नृत्य देखने को मिल रहे है। कार्यक्रम अधिकारी विनोद गुर्जर, कार्यक्रम सहयोगी प्रवीन, नामदेव तथा अंकित मिश्रा इन सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे है।
पवेलियन में प्रमुख तौर पर बधाई लोक नृत्य प्रस्तुत किया गया। बुन्देलखण्ड अंचल में जन्म विवाह और तीज-त्यौहारों पर बधाई नृत्य किया जाता है। मनौती पूरी हो जाने पर देवी-देवताओं के द्वार पर बधाई नृत्य होता है। इस नृत्य में स्त्रियां और पुरुष दोनों ही उमंग से भरकर नृत्य करते हैं। बूढ़ी स्त्रियाँ कुटुम्ब में नाती-पोतों के जन्म पर अपने वंश की वृद्धि के हर्ष से भरकर घर के आंगन में बधाई  नाचने लगते हैं। नेग-न्यौछावर बांटती हैं। मंच पर जब बधाई नृत्य समूह के रूप में प्रस्तुत होता है, तो इसमें गीत भी गाये जाते हैं। बधाई  के नर्तक, चेहरे के उल्लास, पद संचालन, देह की लचक और रंगारंग वेशभूषा से दर्शकों का मन मोह लेते हैं। इस नृत्य में ढपला, टिमकी, रमतूला और बांसुरी आदि वाद्य प्रयुक्त होते हैं।
बरेदी लोक नृत्य
बुन्देलखण्ड के बरेदी लोक नृत्य का सम्बन्ध हमारे देश की कृषक चरवाहा संस्कृति के साथ है। प्राचीन वाङ्मय अध्येताओं ने यह सिद्ध किया कि बहुत पहले इस देश में आभीरय नामक एक अत्यन्त शक्तिशाली जाति का प्रवेश हुआ था, जो अपने साथ पुराने अपभ्रंश का रूप और आख्यानपरक विशद लोक कथाएं लेकर आये थे। कालान्तर में जातियों और संस्कृतियों के आपसी सम्बन्ध के कारण वह पृथक पहचान समाप्त हो गई किन्तु आभीरों की भाषा और संस्कृति का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। इन्होंने अपने स्वभाव, वैशिष्ट्य और रुचि के अनुकूल भारत के  महानायक श्री कृष्ण के जीवन और लीला चरित से स्वयं को जोड़ लिया। आज भी उत्तर भारत के अनेक अंचलों में दीपावली के समय यादव लोग नृत्य करते हैं साथ ही गोपाल कृष्ण की लीलाओं विशेषकर किशोर लीलाओं के  गीत गाते हैं। बुन्देलखण्ड में बरेदी नृत्य दीपावली से पन्द्रह दिन यानी पूर्णिमा तक चलते हैं। विशेष किन्तु अत्यन्त आकर्षक नृत्य पोशाक के  साथ आठ दस युवक और किशोर नर्तक अत्यंत तीव्र गति के  साथ नृत्य करते हैं, एक व्यक्ति नृत्य के पहले गीत गाता है। प्राय: दो पंक्तियों की लोक कविता जिसे बुन्देली में दिवारीय कहा जाता है। यह श्रृंगारिक, नीतिपरक, विशेष रूप से धार्मिक हो सकती है। दीपावली के अवसर पर की जाने वाली गोवर्धन पूजा से इसका घनिष्ठ संबंध है।
ढिमरियाई नृत्य-गीत
ढिमरियाई बुन्देलखण्ड की ढीमर जाति का पारम्परिक नृत्य-गीत है। इस नृत्य में मुख्य नर्तकी हाथ में रेकड़ी वाद्य की सन्निधि से पारंपरिक गीतों की नृत्य के साथ प्रस्तुति देते हैं। अन्य सहायक गायक-वादक मुख्य गायक का साथ देते हैं।
गणगौर
गणगौर निमाड़ी जन-जीवन का गीति काव्य है। चैत्र दशमी से चैत्र सुदी तृतीया तक पूरे नौ दिनों तक चलने वाले इस गणगौर उत्सव का ऐसा एक भी कार्य नहीं, जो बिना गीत के हो। गणगौर के रथ सजाये जाते हैं, रथ दौड़ाये जाते हैं। इसी अवसर पर गणगौर नृत्य भी किया जाता है। झालरिया दिये जाते हैं। महिला और पुरूष रनुबाई और धणियर सूर्यदेव के रथों को सिर पर रखकर नाचते हैं। ढोल और थाली वाद्य गणगौर के  केन्द्र होते हैं। गणगौर निमाड़ के साथ राजस्थान, गुजरात, मालवा में भी उतना ही लोकप्रिय है।
बैगा जनजाति के करमा-परधौनी नृत्य
डिंडोरी जिले के चाड़ा के घने जंगलों मेंं निवास करने वाली आदिम जनजाति बैगाओं के प्रमुख नृत्यों में करमा और दशहरा या बिलमा नृत्य है। इसके अलावा समय-समय पर बैगा परधौनी, झरपट, रीना नृत्य भी करते हैं। बैगा आदिवासियों में परधौनी नृत्य विवाह के अवसर पर बारात की अगवानी केसमय किया जाता है। इसी अवसर पर लडक़े वालों की ओर से आंगन में हाथी बनाकर नचाया जाता है। इसमें एक अवसर विशेष को सम्मोहित करने की चेष्ठा है, जिसमें आनंद और उल्लास की अभिव्यक्ति मुख्य है, लालित्य की चेष्टा गौण। महत्वपूर्ण बात कलात्मक परिष्कार नहीं केवल उल्लास की अभिव्यक्ति है, किन्तु इससे यह समझना भ्रम होगा कि इसमें कला होती ही नहीं। हाथी बनाकर आंगन में नचाने का अनुष्ठान भी यह संकेत करता है कि इसमें प्रसन्नता की अभिव्यक्ति ही मुख्य ध्येय है। अवसर और अनुष्ठान निबद्घ होने के  उपरान्त भी इसे जीवन चक्र के एक अटूट हिस्से के  रूप में ही लेना चाहिये।
मटकी लोक नृत्य
मालवा में मटकी नाच का अपना अलग परम्परागत स्वरूप है। विभिन्न अवसरों पर मालवा के गांव की महिलाएं मटकी नाच करती है। ढोलया ढोलक को एक खास लय जो मटकी के नाम से जानी जाती है, उसकी थाप पर महिलाएं नृत्य करती है। प्रारम्भ में एक ही महिला नाचती है, इसे झेला कहते हैं। महिलाएं अपनी परम्परागत मालवी वेशभूषा में चेहरे पर घूंघट डाले नृत्य करती हैं। नाचने वाली पहले गीत की कड़ी उठाती है, फिर आसपास की महिलाएं समूह में कड़ी को दोहराती है। नृत्य में हाथ और पैरों में संचालन दर्शनीय होता है। नृत्य के केंद्र में ढोल होता है। ढोल पर मटकी नृत्य की मुख्य ताल है। ढोल किमची और डंडे से बजाया जाता जाता है। मटकी नाच को कहीं-कहीं आड़ा-खड़ा और रजवाड़ी नाच भी कहते है।

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